पंजाब प्रान्तक राजा महाराजामे सँ महाराज रणजीत सिंहक नाम हुनक न्यायप्रियता एवं सुशासनक लेल पसिद्ध छनि| एक समयक गप अछि, महाराज रणजीत सिंहजी अपन प्रजाक सुख दुख देखै लेल घोड़ापर सबार अपन सिपाही संगे राज भ्रमणपर निकलल रहथि |महाराज सेना सहित रस्तापर आगू बढ़ैत रहथि की कतौसँ एकटा पाथर उड़ि कs आबि महाराजकेँ बिच्चे माथपर लगलनि| पाथर लगिते हुनकर माथसँ सोनितक टघार बहए लगलनि| महाराज अपन एक हाथसँ घोड़ाक लगाम पकड़ने, दोसर हाथे चट कपारकेँ दाबि लेलनि |सिपाही सभ पाथरक दिसामे दौड़ल| किछु घड़ी बाद ओ सभ एकटा नअ-दस बरखक फाटल चेथड़ी पहिरने, गरीब नेनाकेँ लेने आएल|महाराजकेँ पुछला उत्तर एकटा सिपाही बाजल जे ई नेना पाथर मारि-मारि कए आम तोड़ै छल, ओहे पाथर आबि कs महाराजक माथपर लागल | महाराज रणजीत सिंह ओइ डरैत नेनाकेँ अपना लग बजा, स्नेहसँ ओकर माथपर हाथ फेरैत एगो सिपाहीकेँ आज्ञा देलनि - "पाँच पथिया आम, दू जोड़ी नव कपड़ा आ सएटा असरफी लए कs ऐ नेनाकेँ आदर सहित एकर घर छोड़ि आएल जाए|
महाराजक आज्ञाक तुरंत पालन भेल | मुदा महाराजक निर्णयकेँ नै बुझि सेनापति, सहास कए कs ऐ तरहक फैसलाक कारण पुछिए लेलक|सेनापतिक प्रश्नक उत्तर दैत महाराज बजलाह -"जखन एक गोट निरीह गाछ पाथर मारला उत्तर फल दs रहल छै तखन हम तँ ऐप्रान्तक राजा छी| हमर प्रजा हमर पुत्र तुल्य अछि, एहन ठाम हम कोना फल देबऽसँ वंचित रहि जाइ | गाछ अपन सामर्थे फल दै छै, हम अपन सामर्थे, ऐमे अजगुतक कोन गप|
एहन उदार, न्यायप्रिय, वात्सल्य आ करुण ह्रदयक मालिक छलाह महाराज रणजीत सिंह |
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