असहाय माथक दर्दक पीड़ा, कष्ट, ओइपर सँ मायक रहि-रहि कऽ जलखैक आग्रहक कानमे आबैत शब्द। संजयकेँ ई शब्द सुनि अओर बेसी माथ पीड़ासँ फटए लगै। मुदा मायकेँ धनसन। हुनका जेना संजयक असहाय पीड़ाक कोनो अनुमाने नै। ओकर कष्टपर किनको ध्यान नै, किएक तँ ई ओकर नित्यक कथा रहै। जेना-जेना सूर्यक तेज बढ़ल जाए तेना-तेना ओकर माथ अओर अधिक पीड़ासँ फाटल जाए, ओकर छटपटेनाइक गतिमे वृद्धि भेल जाइ।
कखनो ओकर बाबीकेँ नै देखल जाए तँ एक चुरुक करु तेल माथमे होंसैत देथिन, ओइसँ ओकर माथक पीड़ामे तँ कोनो अंतर नै होइ मुदा दुनु आँखिक कोरसँ नोरक धार बहए लगै। शाइद दर्द एवं पीड़ाक अधिकतासँ अथवा बाबीक हाथक स्नेह स्पर्शसँ। दाँतसँ अपन ठोरकेँ कटैत जेना दर्दकेँ अंदर समेटक कोशिसमे असफल, सभक रहितो अनाथ, स्नेहक आ दुलारक अनाथ।
जानलेबा दर्द, ई आइ-काल्हि ओकरा सभ साल होइ छै। जँ कहबै भरि दिन, भरि राइत, सेहो नै। भोरे रौदक तीव्रताक संग-संग ओकर माथक दर्द बढल जाइ छै, आ दुपहड़ियाक बारह-एक बजे बाद जेना-जेना रौदक तेज कमल जाइ छै तेना तेना ओकर दर्द कम भेल जाइ छै। बेर खसैत-खसैत एकदम ठीक, फेर अगिला दिन। ई ओकर नित्यक क्रम, मुदा घरमे कियो कान-बात दैबला नै। उलटे कियो कहैत- "हूँ पढ़ैक दुआरे बहाना करैए।"कियो कहैत- "काज करै दुआरे बहाना करैए।" एनाहियो अपन मिथिलाक कनियाँ-दाइ सभकेँ झगडा-निंदापर बेसी ध्यान रहैत छनि, अपन बाल-बच्चापर कम। पिताकेँ बाहर कमेनाइयेसँ फुरसैत नै, जे कतौ देखेथिन कि चेक करेथिन। फुरसैत ककरा लग रहै छै, ओहेन उइक्त रहबाक चाही,धिया-पुतासँ स्नेह रहबाक चाही, अपन बच्चाक प्रति अपन कर्तव्यकेँ समझबाक चाही। खाली मारने-पीटने, खिसियौने बुझु अपन कर्तव्यक इत्तीश्री भऽ गेल से नै। संजयकेँ ओइ कष्टकारी पीड़ा एवं दर्दकेँ सहैत दू वर्ष अओर व्यतीत भऽ गेल। दर्दक अधिकता आ भयंकरतामे दिनो-दिन वृद्धिये होइत रहलै। परन्च ओकर बाबीक एक चुरुक करु तेलक अलावा कोनो आन उपचार नै। संजयक पिता पापी पेट भरै लेल महानगर दिल्ली प्रवास कऽ लेला। किछु महिना बाद अपन छोट भाइ अर्थात संजयक पित्तीकेँ समाद देलखिन- "हमर स्त्री-धिया-पुताकेँ नेने आउ।" संजयक बाल मोन बहुत प्रसन्न भेलै। एक अपन बाबूजी लग जाएब, दोसर दिल्ली। ओहू सभसँ बेसी खुसी रेलपर बैसबाक। ओइसँ पहिले कहियो रेल देखनेहों नै। अपन दू वर्षीय छोट भाइकेँ कोरामे नेने आ समतुरिये माँझिल 'अनुज'केँ संग लेने भरि गाम खुशीसँ सभकेँ नोतैत- “'हम दिल्ली जाएब, हम दिल्ली जाएब।"
ओ शुभ दिन आएल, संजय तीनू भाँइ, माय, पित्ती संगे दिल्ली आएल। नव लोक, नव जगह संजयकेँ बड़ नीक लगलै। सभ गोटे अपन-अपनमे व्यस्त भऽ गेल। संजयक पिता अपन नोकरीमे, माय घर-आंगनक काजमे। संजय दुनु भाँइकेँ स्कुलमे नाम लिखा गेलै। दिल्लीक गर्मीमे संजयक माथक पीरा अओर बेसिए वृहद् रूप लऽ लेलकै। जतए गाममे वर्षमे एक बेर कष्टदायक पीड़ा होइ छलै, ऐठाम वर्षमे दू बेर होबए लगलै, छ: छ: महिनापर। फरबरी-मार्च महिनामे जार खत्म भेलापर गर्मीक आगमनक संगे, आ अक्टूबर-नवम्बरमे गर्मी खत्म भेलाक बाद जाड़क आगमनक संगे। ऐठाम एलाक दोसरे वर्षमे एहन भऽ गेलै जे संजयकेँ घरसँ बाहर रौदमे निकलैत डर लगै। डर की, रौदमे जाइते देरी माथ दर्दसँ फाटऽ लगै। ओकर व्याकुलता-व्यग्रता देखि माय-बाबु पुछथिन- "कि होइ छौ? मोन ठीक छौ?" "बहुत जोर सँ माथ दुखाइये।", संजय एतबे कहि कऽ रहि जाए। माथ दर्दक कोनो सामान्य गोटी दएय देलासँ तत्काल दर्द ठीक भऽ जाए। संजयकेँ अपना बुझि पड़ै जेना दर्द रूपी आगिमे पानि पड़ि गेलै। मुदा दू-तीन दिन बाद ओहिना पहिलुका क्रम शुरू, जँइ-जँइ रौद बढ़ल जाइ तँइ-तँइ ओकर माथक दर्द बढ़ल जाइ। संजयकेँ अत्यधिक पीड़ा एवं कष्टसँ दुखी देख ओकर बाबूजी कहितथिन- "काल्हि चलि जइहेँ, काकासँ दबाइ लऽ लिहेँ।' ओकर काका एकटा डाक्टर लग कम्पोंडरी करै छलखिन। तैं किएक अपने लऽ कऽ कोनो डाक्टर लग जाइतथिन जे ई लगातार एतेक वर्षसँ किएक माथक दर्द होइत छै, की कमी छै, की दिक्कत छै, मुदा नै, कि माय कतौसँ देखा ऐबतथिन, मुदा नै। संजय अपन अनुजक हाथ पकड़ि चलि जाए काका लग। काका सेहो दुनु बच्चाकेँ देख बड खुश होथि, बिस्कुट टॉफी कीन कऽ दय देथिन, एक दू रुपया नगदो दय देथिन, बस बाल-मोन तइमे खुश। संजय अपने तँ काकासँ किछु कहियो नै सकैन, अनुजे काका सँ कहनि- "काका यौ, भाइजीक माथ बड दुखाइत रहै छन्हि।" "हँ। किए?"- माथ छुबैत काका कहथिन। माथ ऐ दुआरे छुबथिन कि बुखार-तुखार नै होय, मुदा बुखार नै रहै। "कहिया सँ?"- काका पुछथिन। "सभ दिन दुखाइत रहैए, बड तेज। भोरे जतेक रौद तेज भेल जाइ छै ओतेक बेसी दुखाइए।" ऐबेर संजय अपने बाजल, धिया-पुता ऐसँ बेसी कि कहतै? ओनाहूँ संजय बाजैमे बड़ कम। खास कऽ बाप-पित्तीसँ तँ अओर कम। लाजे बुझु या धाखे अथवा डरो कहि सकै छी। घर-अंगनाक वातावरणक असर धिया-पुताक मस्तिष्कपर पड़िये जाइ छै। "बस"!- काका अपने कोनो डिब्बासँ एक मुठ्ठी गोटी निकालि कऽ दऽ देथिन। दू-तिन दिन दवाइ खेलासँ दर्द बिलकुल ठीक। जतए आन-आन वर्ष दू-अढ़ाइ महिना दर्द रूपी राक्षसक सामना करए पड़ै, ओतए ऐ बेर दस-पन्द्रह दिनक तकलीफक बादे दवाइ खेने ठीक भऽ गेलै।
समय एलै-गेलै। फेर अगिला साल ओहे खिस्सा। पहिलेसँ बेसी विकराल रुपे संजयक माथक दर्द शुरू, मुदा किनको कोनो ध्यान नै। फेर ओ अपन बाबूजीक कहला उपरांत काकासँ दवाइ लऽ अनलक। दू-चारि दिन खेला बाद दर्द ठीक। आब तँ ईहे निअम भऽ गेलै। समय आबै- जाए, संजयोकेँ अपार पीड़ा लऽ कऽ माथक दर्द आबै, गोटी खाए, ठीक भऽ जाए। दिल्ली एला सेहो तीन वर्ष भऽ गेलै मुदा ओकर माथ दर्दक कोनो स्थाइ इलाज नै। स्कूलमे संजय पढाइमे बड तेज। आब ओ वर्ग सात पास कऽ वर्ग आठमे प्रवेश केलक। पँचमासँ लगातार सभ साल अपन वर्गमे पहिल या दोसर स्थान आनए। ओकर अध्यापको सभ ओकर खूब प्रशंसा करथिन। मुदा ओ कहियो स्कूलक खेल-कूदमे भाग नै लिअए, किएक तँ स्कुलमे अक्सर सभ बैट-बॉल खेलाइ, मुदा ओकरा बैट-बॉलक खेलमे बॉल सुझबे नै करै। तैं ओ की खेलेतै? की बॉल पकड़तै? ओकर खेलाइक स्तर निम्न भऽ जाइ तैँ ओ खेलेबे नै करए।
मुदा ई बात ओ नै बुझि पेलक या नै अनुभव कऽ सकल जे ओकरा बहुत कम देखाइ दै छै। सभ तँ केहन बढियाँ खेलाइ छै तँ ओहे किए नै खेल ? या ओकरा नै बॉल देखाइ दै छै तँ किए नै? अनुभवो कोना हेतै, ई बात माय-बाप या गारजनक अनुभव करै बला छै नै कि बच्चाकऽ, अगर बच्चाकेँ एतेक ज्ञान वा अनुभव भऽ गेलै तँ बच्चा, बच्चा किए कहेलक?
ऐ वर्ष जहियासँ संजय वर्ग आठमे प्रवेश कएलक तहियासँ तँ ओकर आँखि दिनपर दिन अओर बेसिए कमजोर होबए लगलैए। स्कुलमे ओ सभसँ अगिला बेंचपर बैसैत छल मुदा आइ आबैमे किछु विलम्ब भऽ गेलै तैं दोसर पंक्तिक बेंचपर बैसऽ पड़लै, मुदा ओइ ठामसँ ओकरा ब्लैक बोर्डपर लिखलाहा देखेबे नै करै। ओ अपन अध्यापक द्वारा देल गेल किछो सवाल नै कऽ पेलक। आइ ओकरा अपना अनुभब भेलै जे ओकर आँखि कमजोर छै, कमजोर नै बड्ड कमजोर छै। ओ अनुभव केलक जे आन-आन बच्चा पाँचम-छअम पंक्तिक बैंचसँ बैसल सवाल कऽ रहल अछि मुदा ओकरा दोसरे पंक्तिसँ ब्लैक बोर्ड नै देखा रहल छै। आइ ओकरा ज्ञात भेलै जे ओकरा क्रिकेटक बॉल किए नै देखाइ दै छै। आइ ओ अनुभव केलक जे ओ बसपर किए नै चढ़ि सकैए। किए तँ ओकरा बसक नम्बरे नै सुझै छै। आइ ओकरा अनुभव भेलै जे ऐ साल वर्ग सातमे पिछुलका सालसँ कम नम्बर किए एलै? ईहे सभ सोचैत-सोचैत ओकर मस्तिष्कमे विचारक मंथन होइत रहै। कखन घंटी खतम भेलै, कखन मास्टर साब चलि गेलखिन, संजयकेँ किछो ज्ञात नै। ओकर ध्यान तँ तखन खुजलै जखन कि टिफिनक घंटी बजलै। सोचैत-सोचैत ओकर माथो बड्ड जोर-जोरसँ दुखाए लगलै। दर्दक अधिकतासँ ओकर दुनु आँखिसँ नोरक धार बहऽ लगलै। कोनो-ना ओ अपनाकेँ सम्हारैत मास्टर साबसँ छुट्टी लऽ कऽ घर चलि आएल। घर अबिते स्कुल बैग एक कात फेक चौकीपर मुँह नुका कऽ सुइत रहल, कखन ओ निन्द पड़ि गेल ओकरा कोनो ज्ञान नै। घरमें कियो नै। बारह बजे माय कतौसँ गप्प-सप्प कऽ कए एली तँ संजयकेँ सुतल देखलन्हि। निन्दसँ उठेलीह, तावत ओकर दर्द आ मोन दुनु स्थिर भऽ गेल रहै,खेलक-पिलक, दिन बित गेलै। साँझ खन पढै लेल बैसल तँ आइ ओ अनुभव केलक जे किताबपर ओ एतेक झुकि कऽ किए पढैए। जतए कि आन-आन बच्चा सभ पलथा मारि एकदम सोझ बैस कऽ पढ़ि रहल अछि। आब ओ पढत कि ओकर मस्तिष्क किछु दोसरे सोचैमे लागल छै। आइ ओकरा ज्ञात भऽ गेलै कि ओकर आँखि कमजोर छै। आब ओ करत तँ करत की? गुन-धुन, गुन-धुन करैत समय व्यतीत केलक।
अगिला भिनसर संजय सभ दिन जेकाँ सुति कऽ उठल। रवि दिन रहै, स्कुल बन्दे, बच्चा सभ टेलीविजन देखैमे लागि गेल, संजय सेहो टेलीविजन देखए लागल। ओकरा बहुत लगसँ टी. वी. देखैक आदत छलै। ई ओकर मजबुरी रहै, किए तँ दूरसँ ओकरा टी. वी. नै देखाइ। मुदा बच्चाक ज्ञान, ओ अपने ऐ बातकेँ नै बुझै आ आगुएसँ टी.वी. देखए। माय-बाबु ऐ बातकेँ किए नै ध्यान देथिन से तँ आब ओहे सभ जानथि। टी.वी. देखै कालमे किछु छन बाद अनुज आबि संजयक आगू बैस रहलै। शाइद संजयकेँ नीकसँ सुझैत रहितै तँ अपने पाछू बैस रहितए। मुदा ओ विवश छल, ओकरा पाछू भेलासँ टी.वी. सुझबे नै करतै, तैं ओ अनुजसँ पाछू होइ लेल कहलकै। ओहो बच्चा, बच्चाक जिद्द। नै पाछू भेल दुनु बच्चामे झगड़ा भऽ गेलै,एतवामे माय संजयकेँ कान ऐंठ कऽ एक चटकन मारैत कहलखिन्ह- "ई चोनहा हरदम झगड़े करैत रहत, छोट भाइ छै, आगुए बैस रहलै तँ की भऽ गेलै। पाछुए भऽ जो।" आब तँ संजयक दुनु आँखिसँ नोरक गंगा-यमुना बहए लगलै। ओकर कान मायक कोनो शब्द नै सुनलकै, खाली ओकर कानमे बेर-बेर "चोनहा" शब्द गुंजय लगलै। आ ई चोनहा ओकर प्राचीन नाम छै, जखन-जखन ओकरा अपन मायक क्रोधक सामना करए पड़ै तखन-तखन ओकरा ऐ चोनहा शब्दसँ विभूषित कएल जाइ। आन दिन कोनो बात नै किए तँ ओ चोनहा शब्दसँ अनभिज्ञ छल मुदा आइ ओकरा चोनहा शब्दक ज्ञान भs गेल रहै, ओकरा कम सुझै छै तकर ज्ञान भऽ गेल रहै। तइ लऽ कऽ ई चोनहा शब्द ओकर हृदएमे शीसा जकाँ भोकए लगलै। मायो ओकरा चोनहा कोनो करणे कहथिन्ह किएक तँ आँखिक अधिक कमजोर भेला कारणे संजयकेँ कोनो वस्तु देखैक हेतु आँखिपर बेसी जोड़ देबए पड़ैक। तइ अवस्थामे ओकर आँखिक दुनु पपनी सिकुड़ि कऽ अधिक समीप भऽ जाए। ई बात ओकर माय देखथिन्ह आ तइ कारणेँ ओकरा चोनहा नामसँ अलंकृत कऽ देलखिन्ह। मुदा ओ एना अपन आँखिकेँ किए करैए, ऐ बातपर किए ध्यान देथिन? जखन मायेकेँ अपन बच्चाक प्रति ई जिम्मेवारी तँ आनक कि बात, जखन मालिए अपन लगाएल गाछकेँ उखाड़त तँ ओइ गाछक भविष्य कतए रहतै?
चित्र आस्था |
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संजयक मोन सैदखन ऐ सोचमे लागल रहै जे आब एकर कि उपाय हुअए। एक तँ माथक दर्द पहिनहिये छह-सात वर्ष सँ हरान केने, तइपर सँ ई आँखिक कमजोरी। किए तँ आब ओकरा अपन कमजोर आँखिक ज्ञान भऽ गेलै तइ कारण सैदखन ओकर मोन ओइ चिंतामे लागल रहै। आब ओ कि कऽ सकैए, गामसँ दिल्ली आएल तेरह-चौदह वर्षक बच्चा। नै किछु बुझल नै किछु ज्ञान, नै कोनो अस्पताल देखल, नै कोनो डाक्टरक पता। माय-बाबुसँ साफ-साफ ऐ बारेमे बात करए सेहो नै, ओकर मोनमे धाख वा डरक मिश्रित भाव एवं कनी कोनो कोनमे स्वाभिमानक भावना सेहो। ऐ गुण-धुन, गुण-धुनमे तीन महिना अओर बीत गेलै, कोनो उपचार नै। स्कुलमे त्रिमासिक परीक्षा भेलै। परीक्षा-परिणाम ओकर स्तरसँ निम्न रहलै,तैयो ओकर माय-बाबुक कोनो प्रतिक्रिया नै जे सभ वर्गमे पहिल-दोसर आबैबला बच्चाक ऐ परीक्षामे अनुरूप परिणाम किए नै एलै। उल्टा दू-चारि टा बात अओर सुनए पड़लै। एतेक कम नम्बर किए एलै तकर जड़ि ताकैबला कियो नै। आब तँ ओकर हालत ई भऽ गेलै जे ओ पढ़ए हेतु बैसऽमे कोताहि करए लगलै, किए तँ आँखि एतेक कमजोर भऽ गेलै जे ओकरा लेल किताब पढ़नाइ असम्भव भेल जाइ। त्रिमासिक परीक्षाक सेहो दु महिना भऽ गेलै। अकस्मात कतौसँ संजयकेँ रोटरी क्लब द्वारा संचालित आँखिक अस्पतालक विज्ञापनक पर्ची हाथ लगलै। तइमे सूचित कएल गेल रहै जे रोटरी क्लब, ब्लोक-३, त्रिलोकपुरीमे निःशुल्क आँखिक अस्पताल खोललक। संजयकेँ ई पढ़ि बड मोन खुश भेलै। ओकर अन्हार मोनमे इजोतक एकटा आशा भेटलै। सभसँ बेसी नीक बात जे ओ अस्पताल ओकर स्कुलक लगे आ निःशुल्क रहै। अगिले दिन संजय स्कुलक छुट्टी भेलाक बाद असगरे पुछैत-पुछैत आँखिक अस्पताल ब्लोक-३ त्रिलोक पुरी पहुँच गेल। ओइठाम ओकरा ज्ञात भेलै जे नव मारीच वास्ते पुर्जा भोरक आठसँ एगारह बजे तक बनैत छै। मुदा आइ तँ एक बाजि गेल रहै। काल्हि भोरे आबैक निश्चय मोने-मोन करैत घर चलि आएल। अगिला दिन भोरे संजय नहा-सुना कऽ स्कुल लेल बिदा भेल अवश्य मुदा स्कुल गेल नै, किताबक बस्ता ब्लोक-दु, त्रिलोकपुरीमे अपन काकाक घर राखि कऽ आँखिक अस्पताल ब्लोक-३ आबि गेल। किछु महिना पहिले तक संजयो सभ ब्लोक-२, त्रिलोकेपुरीमे रहै छल मुदा आब गणेश नगरमे आबि गेल जे किछु एक-डेढ़ किलोमीटर दूर छै। अस्पताल आबि, नव पुर्जाक लाइनमे लागि गेल, लाइनमे लागलाक बाद ओकरा ज्ञात भेलै जे पुर्जा बनेबाक वास्ते दू रुपैय्या देबऽ पड़ै छै जे ओकरा लग नै रहै। ओकर मोनमे किछु दुखो भेलै। स्वयंकेँ सम्हारैत दोसर दिन एबाक निश्चय कऽ ओ ओइठामसँ बिदा भऽ गेल। काका ओइठामसँ स्कूल बस्ता लैत घर आबि गेल।
संजयकेँ स्कूल जाइकाल टिफिन बास्ते जे कहियो कऽ चारि-आठ आना पाइ घरसँ भेटै ओइ पाइ कऽ संजय खाए नै, बचा कए राखए लागल। एक सप्ताह बाद ओकरा लग दू रुपैय्या जमा भऽ गेलै। ठीक आठम दिन फेर ओ रोटरी क्लब द्वारा संचालित आँखिक अस्पताल गेल। पहिले जकाँ भोरे-भोरे किताब-कापी काकाक घर राखि कऽ पहुँचल। पाँतिमे लागि दू रुपैय्या देलाक बाद नव पुर्जा बनेलक। पुर्जा बनेलाक बाद डॉक्टरक कक्षमे पहुँचल। डॉक्टर-साब एकटा तेरह-चौदह वर्षक बच्चाकेँ असगर देखते पुछलखिन्ह- "संगे के अछि?"
संजय चुप। डाक्टरसाब- "माय-बाबू किनको संगे नेने आउ।" आब संजयकेँ बड्ड मुस्किल भेलै मुदा ओ अपनापर काबू रखैत डॉक्टरसाबकेँ तत्काल उत्तर देलकन्हि- "बाबूजी ड्युटी गेल छथि आ माय गाममे छथि।"
हलाँकि ओ ई बात झूठ बाजल जे माय गाममे छथि मुदा डॉक्टर साब ओकर उत्तरमे सत्य देखैत कहलखिन्ह- "अपन बच्चा लेल अहाँक बाबुजी एक दिनक छुट्टी नै कऽ सकै छथि।" "नै डॉक्टर साब, हुनक नव नोकरी छन्हि, छुट्टी करथिन्ह तँ नोकरी छुटि जेतैन।" इहो बात संजय झूठे बाजल,जखन कि ओकर बाबूजी महिनामे पंद्रह दिन छुट्टीएपर रहैत छलखिन्ह, परन्च डॉक्टर साबकेँ एक गोट मासूमक मुँहसँ ई बात सुनि विश्वास आ किछु सहानभूति सेहो भऽ गेलन्हि। "कोनो बात नै, आगू घुसैक कऽ बैसू।" ई कहैत डॉक्टर साब टोर्च वा अन्य-अन्य उपकरणसँ नीक जकाँ आँखिक जाँच कएलाक बाद बजलाह- “आँखि बड्ड कमजोर अछि, तीन दिन आबए पड़त, दू दिन आँखिमे दवाइ पड़त आ तेसर दिन चश्माक नम्बर भेटत।"
ई कहैत डॉक्टर साब ओकर पुर्जापर किछु-किछु लिखैत, पुर्जा पेपरवेटक निचाँ दबा पुनः कहलखिन्ह- "जाउ बाहर बैस रहू, सिस्टर आँखिमे दवाइ देती, दवाइ लेलाक बाद करीब एक घंटा ऐठाम बैसब, सिस्टरकेँ कहला बाद घर जाएब, हँ! काल्हि परसू दू दिन अओर अवश्य आएब।" "ठीक छै।"- कहैत संजय उठि बाहर आबि बेंचपर बैस रहल। किछु छन बाद सिस्टर संजयक आँखिमे ड्रॉप दैत- "आँखि मुनि बैसल रहब।" ओकरा तँ आँखिमे दवाइ पड़िते आँखि एतेक दुखए लगलै जेकर हिसाब नै मुदा सहास केने चुपचाप आँखि मुनने बैसल रहल। लेकिन पंद्रह-बीस मिनटक बाद बुझेलै जे माथ एकदम शांत स्थिर भs गेल हुअए। किछु समय बाद सिस्टर आबि एक बेर फेरसँ संजयक आँखिक जाँच केलाक बाद ओकर दुनु आँखिमे दू-दू बूंद दवाइ दैत पहिले जकाँ आँखि मुनि कऽ बैसबाक निर्देश दैत चैल गेलि। ऐबेर पहिलेसँ किछु कम आँखि दुखेलै।
करीब आधा घंटा बाद सिस्टर आबि संजयक आँखिक जाँच करैत कहलखिन्ह- "ठीक छै, आब जाउ काल्हि भोरे आठ बजे आएब।" "अच्छा !"- कहैत संजय उठि बिदा भऽ गेल, पुनः अपन काका ओइठामसँ बस्ता लेलक आ अपन घर आबि गेल।
अगिला दिन संजय फेरसँ अस्पताल गेल, डाक्टर साब फेरसँ ओकर आँखिक जाँच कएलखिन्ह आ पहिले दिन जकाँ सिस्टरसँ आँखिमे दवाइ दिया कऽ आबि गेल। तेसर दिन अस्पतालमे डॉक्टर साब संजयक आँखिक भिन्न-भिन्न तरह लेंशसँ जाँच कएलाक बाद चश्माक नम्बर बना एकटा पुर्जापर लिख पुर्जा ओकर हाथमे दैत कहलखिन्ह- "ई अहाँक चश्माक नम्बर अछि, माइनस तीन, जे ऐ उमेरमे बहुत अधिक अछि आ अहाँक आँखिक खराबीक गति एखन बहुत अधिक अछि। तइ हेतु आइये जा कऽ चश्मा बनबा लेब आ सैदखन पहिरब। आ हँ, एक बात अओर जे छ महिना बाद आबि फेरसँ आँखिक जाँच करबा लेब, जइसँ ई ज्ञात चलत की आँखिक खराबीक गति कम भेलै, स्थिर भेलै वा बढ़ि रहल अछि।""अच्छा जाइ छी।"- अपन दुनु हाथ जोड़ि संजय डॉक्टर साबसँ आज्ञा लेलक। "ठीक छै, जाउ।"- डॉक्टर साब बजला।
संजय घर चलि आएल मुदा ओकर मोनमे एकटा नव द्वन्द्व मचए लगलै।
चश्मा !
-"चश्मा कतए बनतै? कतए चश्माक दोकान छै? कमसँ कम डेढ़-दू सय रुपैयामे चश्मा बनत, ई डेढ-दू सय रुपैया कतएसँ आएत?"
अओर आन-आन प्रश्न सभ ओकर मस्तिष्कमे एकक बाद एक समुद्रक हिलकोर जेकाँ आबै जाइ।
"की करू? कोना करू? की बाबूजीकेँ कहि दिऐन, जइ चश्माक नम्बर अन्लौंहें से चश्मा बनबा दिअ, नै-नै, कोना कहबनि? की कहबनि? नै कहबनि तँ चश्मा कतएसँ आएत? चश्मा किनै लेल रुपैया कतएसँ आएत? की करु नै करू?"
संजय किछु निश्चय नै कऽ सकल। ऐ सभ बिषयमे सोचैत-सोचैत ओकर आँखि लागि गेलै। ओ सुइत रहल। करीब तीन बजे बेरुपहर ओकर निन्द खुजलै। उठल, मुँह-हाथ धो भोजन केलक, परन्च ओकर मस्तिष्कमे चश्माक द्वन्द्व मचले रहै। ओ कतौ किच्छो करए मुदा ओकर दिमाग चश्मेक बारेमे सोचैत रहै। गुनधुन-गुनधुन करैत अंतमे ओ एकगोट योजनाक अंतर्गत निश्चय केलक जे साँझु पहर बाबूजी केँ कहि देतनि। आन कोनो दोसर उपाए ओकरा नै भेटलै। आ शाइद ई बहुत उचित उपाए रहै।
साँझुपहर ओकर बाबूजी नोकरीसँ एलखिन्ह। गर्मीक महिना रहै, हाथ-पएर धोला बाद बाहर अंगनामे खाटपर बैसला। जलपान इत्यादि कएलाक बाद इम्हर-उम्हरक गप्प-सप्प होबए लगलै। संजय सेहो जेबीमे चश्माक नम्बर बला पुर्जा लेने हुनके लग जा बैस रहल। संजयक मोन आबो गुनधुन-गुनधुन करै, कहियौन्ह की नै। अंतमे ओ हँ कऽ निर्णय केलक आ अपन सम्पूर्ण हिम्मतकेँ जमा करैत, जेबीसँ पुर्जा निकालि कऽ बाबूजीकेँ दय देलकन्हि।
"की छै?"- हलाँकि ओकर बाबूजी पढ़ल-लिखल छथिन्ह, पुर्जापर सभटा लिखल रहै, अस्पतालक नाम-पत्ता, मरीजक नाम उम्र, डॉक्टरक नाम,चश्माक नम्बर आ जारी करै कऽ तारीख, मुदा तैयो बाबूजी पुर्जाकेँ पढ़ैत पुछलखिन्ह।
"चश्माक नम्बर।"- संजय अपन माथकेँ निचाँ झुकोने डराइत धीरेसँ बाजल।
"ककर?"- बाबूजी पुर्जा पढ़ैत बातकेँ अन्ठाबैत पुछलखिन्ह।
"हमर।"- संजय अपन सेफकेँ गरदनिसँ निचाँ घोटैत आगू बाजल- "आइ स्कूलमे डॉक्टर आएल रहैक ओ सभ बच्चाक आँखिक जाँच केलकै,हमरो जाँच केलक, हमर आँखि खराप अछि से कहलक। चश्मा पहिरऽ पड़तै।"
हलाँकि संजय ई सभ बात झूठ बाजल मुदा ओ पिता छथि, पढ़ल-लिखल छथि, डॉक्टरक पुर्जा हुनक हाथमे छनि, ओ पढि सकै छलाह जे ई पुर्जा रोटरी क्लब द्वारा संचालित आँखिक अस्पताल त्रिलोकपुरी ब्लोक-३ क छै। मुदा कखन, जखन अपन बच्चा वा बच्चाक स्वास्थ्यक प्रति कोनो रूचि रहितनि। हुनका जेना संजयक बातपर विश्वास भऽ गेलन्हि। विश्वासो भेलन्हि तँ कमसँ कम ई तँ ज्ञात भेलन्हि जे हुनक बच्चाक आँखि खराप छनि। आबो कोनो नीक डॉक्टरसँ कतौ अपनेसँ देखा दिऐक वा डॉक्टर देखने छै तँ चश्मा बनबा दिऐ। कनी मोनमे किछो दोसर रंग हेबाक चाही। एकदमसँ बैसल-बैसाएल किनको ई ज्ञात होइन जे हुनक बच्चाक आँखि खराप छै, एकर प्रमाणिकताक एकटा विशेषज्ञ डॉक्टरक लिखल पुर्जा हुनक हाथमे छनि, ऐ तरहक पिताक मोनमे जरुर किछो भाव हेतैन्ह, आश्चर्यक, विस्मयक, दुखक, तत्पर्यताक मुदा नै, संजयक बाबुजीक ऊपर कोनो तरहक प्रभाव नै, धनसन।
हँसैत संजयसँ कहै छथिन्ह -"डॉक्टर सभ एनाहीं कहैत छै, ऐ उम्रमे कतौ आँखि खराप होइ।"
तै पर संजयक माय कहितो छथिन्ह -"हँ यौ, एकर आँखि चोनाह लगै छै।"
बाबूजी- "अच्छा देखियौ, इम्हर आ।"
एकर बाद अपन एकटा आंगुर देखबैत- "ई कएटा आंगुर छै।"
संजय- "एकटा।"
ऐबेर दूटा आंगुर देखा कऽ बाबूजी -"ई कएटा आँगुर छै।"
"दूटा"- संजय धीरेसँ बाजल।
"सभ ठीक छै, अच्छा कोनो बात नै। चश्मों बनबा देबौ।"- कहैत बाबूजी पुर्जा जेबीमे राखि लेला।
तकर बाद इम्हर-उम्हरक गप्प-सप्प होइत बात खत्म।
बात एलै-गेलै। समय बितैत रहलै। संजयक स्कूलक छमाही परीक्षा सेहो खत्म भऽ गेलै। ओकर आँखिक कमजोरीक गति लगातार बढ़ैत रहलै,चश्माक नम्बरो अनला महिनासँ उपर भऽ गेलै मुदा अखन तक ओकर चश्मा नै बनलै। संजयक छोटका मामा सेहो गणेश नगरमे संजयक घरसँ किछुए दूरपर रहै छलखिन्ह। हुनका किछु समानक खरीदारीक बास्ते सदर बजार जाइ कऽ रहनि। समान किछु बेसी लेबए कऽ रहनि, तइ हेतु ओ संजयकेँ सेहो अपन संगे टेल्हूमे संग कऽ लेलखिन्ह। मामा-भगिना दुनु गणेश नगरसँ लाल किलाबला बस पकड़ि लाल किलाक बस स्टेंडपर उतरि गेला। ओइ ठामसँ पएरे सदर बाजार हेतु चांदनी चौक खाड़ी-बाबली क रस्ते बिदा भऽ गेला। लाल किला दिससँ चांदनी चौक रोडपर किछुए दोकान पार कएलाक बाद दहिना हाथ कऽ एकटा सिनेमा घर पड़लै आ ओकर तेसरे दुकान चश्माक दोकान रहै। संजयक नजैर ओइ दोकानपर पड़ि गेलै। ओ ओइ दोकानकेँ देख लेलकै, देख की लेलकै ओकर नक्शा अपन मानस-पटलपर उताड़ि लेलक। चलैत-चलैत संजयक मस्तिष्कमे एकटा नव विचारक मंथन होबए लगलै- "चश्माक दोकान तँ देख लेलौंह, ऐठाम हम असगरो आबि सकै छी, आबि कऽ चश्मा बनबा सकै छी। रहि गेलै पाइयक बात, हम अपने पाइ जमा करब, तीन महिनामे हेतै, चारि महिनामे हेतै, कहुना कऽ दू सय रुपैया जमा करब। तकरा बाद ऐठाम आबि कऽ चश्मा बनबा लेब। जखन बाबूजी नै बनबा देला तँ अपनों तँ बनाबी। कियो कान-बात नै दै छथि, काल्हि आन्हर भऽ जाएब तँ… नै-नै.. हम जमा करब, दू सय रुपैया जमा करब, अवश्य जमा करब।"
चलैत-चलैत अपने भीतर हराएल संजय कखन मामा संगे-संगे सदर बजार पहुँच गेल ओ किछु नै बुझलक, आ नै ओकरा कोनो रस्ता यादि रहलै,यादि रहलै तँ मात्र अपन घरसँ चश्मा दुकान तकक रस्ता। आब की छलै, आब तँ संजयकेँ एक गोट नव राह भेट गेलै। जतए कतौ कोनो बाबति दस -बीस पाइ, चारि-आठ आना, एक-दू रुपैया, जे जतऽ हाथ आबै, एकटा डिब्बामे जमा केने गेल। सभसँ नुका कऽ छुपा कऽ, माय-बाबू सभसँ। भेटै कते? दोसरा तेसरा दिनपर घरेसँ स्कूलक टिफिन बास्ते चारि-आठ आना पाइ। किएक तँ ओकर भोरका स्कूल रहै आ माय ओतेक भोरे किछु बना कऽ टिफिन बास्ते देथिन से नै पार लगनि। तइ हेतु दोसरा-तेसरा दिनपर नगदे चारि-आठ आना वा एक-दू रुपैया जे जहिया भेलै ओकरा भेट जाए। मुदा संजय ओइ पाइकेँ खाइमे खर्च नै करए। ओ मासूम बच्चा अपन भविष्य हेतु, अपन वर्तमानक मोनकेँ मारि सएह कऽ रहि जाए। कखनो कऽ कोनो पित्तियो आ मामा लोकनि सेहो किछु पाइ-कौरी धिया-पुताकेँ कोनो विशेष अवसरपर दऽ देथिन्ह मुदा संजय ओइ पाइकेँ खर्च नै कऽ चश्मा हेतु राखि लए। पाबनि-तिहार जेना दशहरा, रामलीला देखै लेल, मेला घुमै लेल, दिवालीक फटक्का किनै लेल, आन-आन पाबनि-तिहारक अवसरपर संजयकेँ जे पाइ घरसँ भेटै, सभटा अपन मोनकेँ मारि चश्माक लेल राखि लए।
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सभ मिला कऽ डेढ़ सय रुपैया जमा करैमे संजयकेँ पाँच महिना लागि गेलै। नम्बर लेलाक एक डेढ़ महिना बादसँ ओकर मोनमे पाइ जमा करैक बात एलै। कुल मिला कऽ चश्माक नम्बर अनला छ महिना भऽ गेलै मुदा संजय लग एखन तक मात्र डेढ़ सय रुपैया जमा भेलै। ओकर लक्ष्य तँ दू सय रुपैयाक रहै, मुदा आगूक पचास रुपैयाक वास्ते पता नै कतेक समय आरो लगतै। ताँइ ओ निश्चय केलक जे एतबेसँ दोकान जाए, कम भेलै तँ आगू देखल जेतै।
अगिला दिन संजय स्कूलक टिफिनेमे स्कूलसँ लालकिलाक बस पकड़ि कऽ चाँदनी चौक चश्मा दुकानक हेतु बिदा भेल। पाँच महिना पहिले आएल छल, तइ कारण किछु दिक्कत सेहो भेलै, मुदा पहुँच गेल। जखन दोकानदारकेँ चश्माक नम्बरबला पुर्जा देलकै तँ दोकानदार देखिते बाजल- "ई तँ बड्ड पुरान नम्बर अछि, डॉक्टरसँ नबका पुर्जा बनबा कऽ लऽ आबू, किएक तँ नम्बर बढ़ैत रहै छै आ छह महिना तँ बहुत बेसी समय भेलै।"
दोबारा पुर्जा बनाबैक निश्चय करैत संजय दुखी मोने ओइठामसँ चलि आएल। आइ प्रथमे कतौ बाहर असगरे निकलल रहए, असुविधो भेलै। सभसँ बेसी ओकरा बसक नम्बरे नै सुझाइ, तैं रहि-रहि कऽ सभसँ पुछऽ पड़ै, कोनोना घर तक सकुशल आएल।
पुनः भोरे-भोर संजय पाहिले जकाँ रोटरी क्लब संचालित आँखिक अस्पताल त्रिलोकपुरी ब्लोक-३ पहुँचल। तीन दिनक हरानीक बाद चश्माक नव नम्बर भेटलै मुदा जे छह महिना पहिले माइनस तीन रहै से आब ठामे दुगुन्ना माइनस छह भऽ गेलै। छह महिनामे एतेक नम्बर बढ़नाइ। अही बातक अंदाजा लगाएल जा सकै छै जे ओकर आँखि कतेक बेसी खराप रहै वा कतेक बेसी गतिसँ खराप भऽ रहल छै।
डॉक्टर तँ संजयकेँ ऐ बातसँ पहिले अबगत करा देने रहथि आ चश्मा तुरंत बनाबैक हिदायत से देने रहथि। मुदा विधिकेँ जे मन्जुर। अगर आबो अपने नै सचेत हएत तँ आगूक छह महिनामे आन्हरे भऽ जाएत। संजयकेँ आब बढ़ल नम्बरकेँ जानि बड़ चिंता होबए लगलै। अगिला दिन ओ स्कूलो किए जाएत, किताबक झोरा लेने सोझे चाँदनी चौक चश्माक दुकानपर पहुँचल। चश्माक नव नम्बरक पुर्जा दुकानदारकेँ देलक। ओकर आँखिक एतेक नम्बर देखि दोकानदार आश्चर्यसँ- "हाँ, एतेक बेसी नम्बर, अहींक छी की?" "हाँ"- संजय धीरेसँ बाजल। दोकानदार- "किए ऐसँ पहिले नै देखने रही की? ई तँ साफ-साफ लापरबाहीक लक्षण थिक। माँ बाबुजी नै छथि की? ओहो भगवान एहेन ककरो…।" "नै-नै एहन कोनो बात नै।"- दोकानदारक बात बिच्चेमे रोकैत संजय बाजल। दोकानदार सेहो अपन बातकेँ विराम दैत अलग-अलग डिजाइनक फ्रेम निकालि-निकालि कऽ देखाबए लागल आ संगे-संगे ओकर दाम सेहो बताबए लागल। फ्रेम सभपर एक नजरि दैत संजय बाजल- "हम विद्यार्थी छी आ हमरा लग कुल डेढ़ सय रुपैया अछि, अही दाममे कोनो मजबूत आ टिकाउ फ्रेम देखाबू।" "ठीक छै।"- कहैत दोकानदार सेफक एक कोनासँ एकटा साधारण परञ्च मजगूत फ्रेम निकालि कऽ दैत बाजल- "ई लिअ, अहाँ एहेन बच्चा लेल ई बहुत उचित छै। मजगूत टिकाउ आ दामो मात्र पचहत्तरिये रुपैया, पचास रुपैयाक शीसा अर्थात कुल सवा सय रुपैया लागत।"
"ठीक छै एकरे बना दिअ।"- संजय खुशीसँ बाजल, किएक तँ ओकरा अंदेसा छलै जे रुपैया कम हएत आ कतऽ जे पचीस रुपैया बचिये गेलै। दोकानदार- "ठीक छै तँ पाइ जमा कऽ दिअ, काल्हि आबि कऽ चश्मा लय जाएब।"
संजय दोकानदारकेँ एक सय पचीस रुपैया देलाक बाद बिल लय ओइठामसँ बिदा भऽ गेल। बिलपर देखलक दोकानक नाम “लक्ष्मी आप्टिकल”लिखल रहै। साइन-बोर्डपर लिखल नाम तँ ओकरा सुझले नै रहै। बस पकड़ि घर आएल। आइ ओकर मोन किछु शांत रहै। घरपर ई बात सभ केकरो लग नै बाजल। ओकर मोनमे तँ हलचल मचल रहै, कखन भोर होइ आ जल्दी-जल्दी चश्मा आनए।
भोरे संजय उठि सभ दिन जेकाँ नहा-सुना कऽ स्कूल गेल। स्कूलक छुट्टी भेलाक बाद सोझे स्कूलेसँ लालकिलाक बस पकड़ि कऽ चश्मा लेल चाँदनी चौक बिदा भऽ गेल। चश्मा दोकान पहुँचल, ओकर चश्मा बनि चुकल छलै। चश्मा देखलाक बाद दोकानदारक कहला उत्तर लगाओ कऽ देखलक। ई की? चश्मा लगेलासँ ओकरा एक नव दुनियाँक दर्शन भेलै। सभ किछु नव-नव। ओ सामने रोडक ओइ पारक दोकान सभ, दोकानक भीतर राखल समान सभ, दोकान सबहक साइन-बोर्डपर लिखल अक्षर सभ एकदम साफ-साफ बिलकुल स्पष्ट देखा रहल छलै। एके मिनटमे आइ ओकरा ज्ञात भेलै जे ई महानगर कतेक सुन्नर छै जे की आइसँ पहिले कहियो नै देखने छलै। लगले ओ अपन आँखिसँ चश्मा निकालि कऽ खोलमे रखैत जेबीमे राखि लेलक। किएक तँ बिना चश्माक आ चश्मा पहिरलाक बादक दुनियाँक सन्तुलन करैमे किछु तँ समय लगतै। चश्मा पहिरला बाद सभटा नव-नव लगै, जे- जे बस्तु सब देखाइ से-से सभ कहियो ओ अनुभवो नै केने। अही दूरीकेँ भरैमे तँ किछु समय, एक दू दिन तँ लगबे करतै। दोसर दोकान तक ओ बिना चश्माक आएल छल, आब पहीर कऽ नव दुनियाँ संगे जाएमे असुविधा छलै। दोकानसँ बाहर निकलि बिना चश्मेक बस स्टेंड तक आएल। आब कोन बस पर चढ़ए कि ओकरा चश्माक यादि एलै। चश्मा निकालि कऽ लगेलक, की ओकर आश्चर्यक सीमा नै रहलै,जतऽ बिना चश्माक सामने ठाढ़ बसक नम्बरो नै सुझै छलै ततए चश्मा पहीर कऽ समूचा रोडपर जतेक बस गाड़ी रहै, सबहक नम्बर पढ़ि सकै छल।
ओकर मोन ऐ नव वस्तु सभ देख कऽ आनन्दविभोर भऽ गेलै। पाछाँ घुमि कऽ देखलक तँ सामने छाती तनने ठाढ़ विशालकाय लाल पाथरसँ निर्मित सुन्नर लालकिला देखलक। लालकिलाक सुन्नरता एवं मनमोहकता देखि कऽ ओ मन्त्रमुग्ध रहि गेल। किए तँ पहिले बिना चश्माक तँ खाली लाल-लाल धुंद जकाँ किछु छै, सएहटा देखाइ दै। असली लालकिला तँ आइ चश्मा पहिरलाक बाद देखलक। तावत सामने दूरसँ ओ देखलक,ओकर बस आबि रहल छै। मुदा चश्मा पहिरबाक आदत नै रहबाक कारण चलैमे असुविधा होइ। तैँ फेरसँ चश्मा खोलि जेबीमे रखलक आ बसपर बैसल। बसपर बैसलाक बाद फेरसँ चश्मा निकालि एकबेर लगाबए एकबेर निकालए। अन्तमे चश्मा निकालि खोलमे दय बस्तामे राखि लेलक,तावतमे बस सेहो चलए लगलै। बस चलि रहल छलै आ संजय कऽ मोनमे सोचक भँवर उठए लगलै- "अही सवा सय रुपैयाक चश्माक अभावे हमरा एतेक कष्टक सामना करए पड़ल। नै खेला सकै छलौंह, नै बसपर चढ़ि सकै छलौंह, नै ब्लैक बोर्डपर लिखल हिसाब देख सकैत छलौंह, नै नीक जकाँ किताब पढ़ि सकै छलौंह, नै टी. वी. देख सकै छलौंह। पढ़ाइयोमे दिन-दिन पिछरल जा रहल छलौंह। मुदा माँ बाबूजी ऐ बातपर कोनो ध्यान नै देलनि। एक बेर तँ चश्माक नम्बरो आनि कऽ देलियन्हि मुदा धन-सन, कोनो कान-बात नै। कोना-कोना कुन-कुन हिसाबे अपने एक -एकटा पाइ जोड़ि कऽ पाँच महिनामे ई रुपैया जमा केलहुँ।" विचारक मंथनमे डुबल कोना समय बीत गेलै, कोना बस अपन गंतव्य स्थानतक आबि गेलै, संजयकेँ किछु ज्ञात नै। ओ तँ अपन ध्यानमे डुबल रहए, जखन सभ बससँ उतरि गेलै तखन ओकर ध्यान खुजलै आ ओ बससँ उतरल। बससँ उतरलाक बाद पएरे चलैत ओकर मोन एक बेर फेरसँ नव समस्यामे ओझराए लगलै- "चश्मा तँ लऽ अनलौं, आब घरमे की कहबै?कतए सँ चश्मा अनलौं? रुपैया कतएसँ अनलौं? के बना देलक?" आन-आन सवाल-जवाब सभ ओकरा मोनमे अबै जाइ। रस्ता खत्म, घर आबि गेलै। खेलक-पिलक मुदा ओकर मोन तँ अही प्रश्नक उत्तर खोजैमे लागल रहै की- "घरमे चश्मा की कहि कऽ देखेबै?"
समय बितलै, साँझ पड़लै। संजय सेहो नव मोर्चा सम्हारैक किछु उपाय सोचलक।
संजयक बाबुजी सेहो ड्यूटीसँ एलाह। नितकर्मसँ निवृत भेलाक बाद माँझ आँगनमे खाटपर बैसलाह। संजयक माय आ छोट दुनु भाइ हुनके चारुकात बैसल। संजय सेहो अपन जेबीमे चश्मा रखने ओइठाम बैसल मुदा बाहर निकालि कऽ देखेतै से हिम्मतक अभाव। आन-आन गप सभ होइत रहैक, तइ बिचमे संजय बहुत आत्ममंथन आ आत्मदृढ़ताक बाद अपन सम्पूर्ण सहासकेँ जुटाबैत जेबीसँ चश्मा निकालि बाबूजीकेँ देलकन्हि। बाबूजी चश्माकेँ हाथमे लैत- "की छै?" "चश्मा।" संजय अस्थिरेसँ माथ झुकौने बाजल। आगू अपन सेफकेँ गरदनिसँ निचाँ घोंटैत बाजल- "आइ फेरसँ स्कूलमे डॉक्टर आएल रहै। हमर चश्मा नै बनल तइ कारण बहुत बाजल, कहलक पहिलेसँ दुगुना बेसी आँखि खराब भऽ गेल-ए। अंतमे वएह डॉक्टर अपने लगसँ चश्मा देलक।" ई बात ओ एतेक फटाफट बाजल जेना कियो गोटा ड्रामामे रटल-रटाएल शब्द फटाफट बाजि जाइए। हलाँकि ओ उपरोक्त सभ बात फुसिए बाजल, किए तँ बच्चाक मोन अपने ओतेक कष्ट सहि चश्मा बनबेलक मुदा ओकरा सामने आनै लेल किछु नै किछु तँ कहैए पड़तै। झूठो बाजि कऽ अपन आँखिक रक्षा केलक। जे काज ओकर माय-बाबूकेँ करबाक चाहियैन्ह से काज ओ मासूम बच्चा अपने केलक। मुदा ई कोनो एतेक भारी झूठ नै भेलै जे पकड़ल नै जाए। चश्माक खोलपर साफ-साफ दोकानक नाम पत्ता लिखल रहै, लक्ष्मी ओप्टिकल, दोकान नम्बर फलाँ-फलाँ, चाँदनी चौक दिल्ली छह। आ ई कियो एक गोट सामान्य बुद्धिक व्यक्ति जनै छै जे एक निजी दुकान मँगनीमे चश्माक वितरण किए करतै? कोनो सरकारी या धर्मार्थ संस्थाक नाम होएतैक तँ कनी बिस्बासो कएल जा सकै छलै। मुदा ऐठाम एहन कोनो बात नै। दोसर चश्मा बनेनाइ कोनो चुटकीक काज तँ नै छैक? नम्बरक सीसाकेँ काटि-छाँटि कऽ,घसि कऽ फ्रेमक मुताबिक बनेनाइ, जे एक गोट वर्क-शॉपमे भऽ सकैत छै, नै कि कोनो डॉक्टरक जेबीमे। परञ्च बाबूजीकेँ संजयक बातपर विश्वास भऽ गेलनि, सैदखन पहिरै कऽ निर्देश दैत। बस! आगू कोनो बात-चित नै। कनीकाल लेल मानि लेल जाए, छह महिना पहिले जखन संजय हुनका हाथमे चश्माक नम्बर देने रहनि तखन ओ कोनो कारणे चश्मा नै बना पएलनि, मुदा आबो तँ सामने देख रहल छथिन जे कतेक मोटका सीसाक चश्मा ओकर आँखिक ऊपर छै। आबो तँ अपन पहिलुक गलती सुधारि सकै छलथि। कतौ कनी नीक डॉक्टरसँ ओकर आँखिक इलाज करा सकै छलथि। दिल्लीमे तँ एकसँ एक पैघ-पैघ अस्पतालक लाइन लागल छै। कतऽ धिया-पुताक आँखिमे एकटा कीड़ा पड़ि जाइत छै तँ ओकर माय-बापक आत्मा तर्पय लगै छै, आ कतए एक गोट माय-बापक बच्चाक आँखिक ऊपर माइनस छहक चश्मा लागि गेलै आ धन-सन। आब संजय सैदखन आँखिसँ चश्मा लगोने रहए, स्कूल, हाट-बाजार, रस्ता-घाट कतौ बिना चश्माक नै जाए। पहिले दु-चारि दिन किछु असुविधो भेलै मुदा बादमे अभ्यास भऽ गेला पश्चात सभ ठीक। चौबीस घंटामे जेतबे काल रातिमे सुतल ततबे काल ओकर आँखिसँ चश्मा निकलै, कहियो कऽ तँ चश्मे पहिरने सुतियो रहए।
संजयकेँ चश्मा लेला पुरे दू वर्ष भऽ गेलै आ आइये ओकर दसम वर्गक परीक्षा परिणाम घोषित भेलैक ओ नीक अंकसँ पास केलक। परीक्षा परिणाम जनला बाद ओकर मोन रिजल्टक चिंतासँ किछु हल्लुक भेलैक, किछु शांतिसँ बैसल रहए की ओकर मोन रूपी घोड़ा जीवनक सात-आठ वर्ष पाछू चलि गेलै। कोना-कोना ओकरा कष्टकारी माथ दर्द होइ, कोना गामपर माथ दर्दसँ अंगनामे ओंघड़िया मारए आ कियो ओकरा देखनाहर नै। दिल्ली आएल मुदा दिल्लीयोमे ई जानलेबा असहाय माथ दर्द कोनो कम नै, दिनसँ दिन बेसिए परेशान केलकै। कि एकाएक ओकर मानसपटलपर कतौसँ अबाज एलै- "ई की? बहुतो दिनसँ तँ माथ दुखेबे नै कएल-ए। कहिया सँ? दू वर्षसँ, हाँ -हाँ दुए वर्षसँ, जहियासँ चश्मा लेलौंहँ तहिये सँ। हाँ-हाँ जखनसँ चश्मा पहिरब शुरु कएलौंहँ तखने सँ ई असहाय जानलेबा माथ दर्द ठीक अछि। ई दू वर्षमे एको बेर माथ दर्द नै भेल। तँ जे एतेक असहाय माथ दर्द सात-आठ वर्ष वा ओहुसँ पहिलेसँ होइ छल से आँखिक कमजोरीक कारणे? हाँ ! शाइद -- शाइद कि पक्का? पक्का, हाँ! आँखिक कमजोरीक कारणे ओतेक माथ दर्द होइत छल।"
जान लेबा माथ दर्द, ओकर सुमरण मात्रसँ संजयक समुच्चा देहमे कपकपी भऽ गेलै। जेना-जेना आँखिक कमजोरी बढ़ल जाए तेना-तेना ओकर माथक दर्द विकराल रूप धारण केने गेल रहै। मुदा कियो कोनो डॉक्टरसँ देखाबए बला नै। ई बात सभ सुमैरते ओकर दुनु आँखिसँ नोरक धारा बहए लगलै। मुदा तैयो ओकर सोचक विराम नै होइ छै, ओकर विचार रूपी घोड़ा लगातार अपन पथपर सरपट दौड़ रहल छै- "आह! अगर सात-आठ वर्ष पहिले, कमसँ कम दिल्लीयो एला बाद कोनो नीक डॉक्टरसँ हमर माथ दर्दक इलाज भेल रहितए तँ किएक ओ ओतेक कष्ट आ पीड़ा सहय पड़ितए, आ किएक आइ एतेक मोट सीसाक चश्मा आँखिपर पहिरए पड़ितए, जकर बिना कि एक तरहे आन्हरे छी। ई ककर दोष? हमर? हमर समाजक? हमर माय-बापक? कि हमर कपारक? यदि एतबोपर हम अपने नै सचेत भेल रहितौं तँ आइ दसवीं पास करबाक जगह एक भयंकर अन्हारक दुनियाँमे विलीन भऽ गेल रहितौं।"
चित्र आस्था |
संजयक विचारक घोड़ा विराम लेलकै कि नै? मुदा समाजक सामने एकटा यक्ष प्रश्न छोड़ि गेलै- माय-बापक कर्तव्य अपन संतानक प्रति की हेबाक चाही? भोजन, कपड़ा-लत्ता आकि आगुओ किछु? आगू की-की ???
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